जदीद इस्लामी फैशन न सिर्फ मुसलमानों के लिए एक मुख्तलिफ पहचान बनाता है, बल्कि दुनिया भर में मक़बूल भी हो रहा है। ये फैशन अपनी जड़ से जुदा नहीं है, बल्कि इस्लामी तालीमात और सुन्नत से मुतास्सिर है। तारीखी पास-ए-मंजर में इस्लामी लिबास ने हमेशा हया और संस्कृति का पैग़ाम दिया है। दीनि अहकाम के साथ फैशन का तवाज़ुन बनाकर मुसलमान अपनी पहचान बरकरार रखते हैं। हदीस की रौशनी में लिबास पहनने का मकसद हया और साफ-सुथरा लिबास पहनना है। सुनाती लिबास का एहतिराम और जदीद अंदाज़ का इज़ाफा, दोनों का मिलाप इस्लामी कल्चर को नई सूरत देता है।
Islami Fashion ka Tareekhi Pas-e-Manzar : इस्लामी फैशन का तारीखी पास ए मंजर
इस्लामी लिबास एक ऐसे तरीक़े का लिबास है जो दीन के मुताबिक़ इज़्ज़त और हया का इज़हार करता है। तारीखी तौर पर इस्लामी लिबास का मकसद यह था कि औरत का लिबास इस क़दर पर्दादार हो कि कोई ग़ैर महरम उसके जिस्म का एक हिस्सा भी न देख सके। उस वक़्त औरतें लंबी और ढकी हुई पोशाकें पहनती थीं जो उनकी हया और इज़्ज़त की पहचान थीं।लेकिन आज के दौर में इस्लामी लिबास को सिर्फ़ एक फ़ैशन का ज़रिया बना दिया गया है। अब लिबास सिर्फ़ नाम का इस्लामी है, लेकिन उसका असल मकसद खो गया है। कुछ लोग इतना बारीक और तंग लिबास पहनते हैं कि लिबास होने के बावजूद जिस्म का हर हिस्सा वाज़ेह होता है। ऐसे लिबास न सिर्फ़ हया के ख़िलाफ़ हैं, बल्कि मुसलमान औरतों की इज़्ज़त और पहचान को भी नुक़सान पहुंचाते हैं। इस्लामी लिबास का असल मकसद इज़्ज़त और हया को बरक़रार रखना है, जो हर मुसलमान के लिए ज़रूरी है।
Deeni Ahkaam aur Fashion ka Tawazun : दीनी अंजाम और फैशन का तवजू
इस्लाम के मुताबिक ऐसे कपड़े पहनने चाहिए जो जिस्म को पूरी तरह ढक लें और हया का इज़हार करें। कोई भी ऐसा लिबास जो सिर्फ फैशन के लिए पहना जाए या दूसरों को अट्रैक्ट करे, वो मुनासिब नहीं। आजकल के दौर में हिजाब और अबाया भी कभी-कभी शो या ज़ीनत के लिए पहने जाते हैं, जो इस्लामी मक़ासिद के खिलाफ है। हमें चाहिए कि अपना हिजाब और अबाया जितना हो सके सिंपल और प्लेन रखें, ताके दूसरे लोग हमारी तरफ मुतास्सिर न हों। इस्लाम का मक़सद है हया और शराफत का इज़हार, ना कि लोगों का अटेंशन लेना।
Hadith ki Roshni Mein Libas Pahnna : हदीस की रोशनी में लिबास पहनना
तिर्मिज़ी, हदीस: 1173 से रिवायत है।
حَدَّثَنَا مُحَمَّدُ بْنُ بَشَّارٍ، حَدَّثَنَا عَمْرُو بْنُ عَاصِمٍ، حَدَّثَنَا هَمَّامٌ، عَنْ قَتَادَةَ، عَنْ مُوَرِّقٍ، عَنْ أَبِي الْأَحْوَصِ، عَنْ عَبْدِ اللَّهِ، عَنِ النَّبِيِّ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ، قَالَ: الْمَرْأَةُ عَوْرَةٌ فَإِذَا خَرَجَتِ اسْتَشْرَفَهَا الشَّيْطَانُ . قَالَ أَبُو عِيسَى: هَذَا حَدِيثٌ حَسَنٌ غَرِيبٌ.
नबी अकरम (सल्ल०) ने फ़रमाया : औरत ( सर से पैर तक ) पर्दा है। जब वो बाहर निकलती है। तो शैतान उस को ताकता है। इमाम तिरमिज़ी कहते हैं : ये हदीस हसन ग़रीब है।
बुखारी, हदीस: 5788 से रिवायत है।
حَدَّثَنَا عَبْدُ اللَّهِ بْنُ يُوسُفَ ، أَخْبَرَنَا مَالِكٌ ، عَنْ أَبِي الزِّنَادِ ، عَنْ الْأَعْرَجِ ، عَنْ أَبِي هُرَيْرَةَ أَنَّ رَسُولَ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ ، قَالَ : لَا يَنْظُرُ اللَّهُ يَوْمَ الْقِيَامَةِ إِلَى مَنْ جَرَّ إِزَارَهُ بَطَرًا .
रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने फ़रमाया, ”जो शख़्स अपना तहमद ग़ुरूर की वजह से घसीटता है अल्लाह तआला क़ियामत के दिन उसकी तरफ़ देखेगा नहीं।”
अबू दाऊद, हदीस: 4031 से रिवायत है
حَدَّثَنَا عُثْمَانُ بْنُ أَبِي شَيْبَةَ، حَدَّثَنَا أَبُو النَّضْرِ، حَدَّثَنَا عَبْدُ الرَّحْمَنِ بْنُ ثَابِتٍ، حَدَّثَنَا حَسَّانُ بْنُ عَطِيَّةَ، عَنْ أَبِي مُنِيبٍ الْجُرَشِيِّ، عَنِ ابْنِ عُمَرَ، قَالَ: قَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ: مَنْ تَشَبَّهَ بِقَوْمٍ فَهُوَ مِنْهُمْ .
हज़रत इब्ने-उमर (रज़ि०) से रिवायत है कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया : जिसने किसी क़ौम से मुशाबिहत इख़्तियार की तो वो उन्ही में से हुआ।
बुखारी हदीस नंबर 9 से रिवायत है।
حَدَّثَنَا عَبْدُ اللَّهِ بْنُ مُحَمَّدٍ ، قَالَ : حَدَّثَنَا أَبُو عَامِرٍ الْعَقَدِيُّ ، قَالَ : حَدَّثَنَا سُلَيْمَانُ بْنُ بِلَالٍ ، عَنْ عَبْدِ اللَّهِ بْنِ دِينَارٍ ، عَنْ أَبِي صَالِحٍ ، عَنْ أَبِي هُرَيْرَةَ رَضِيَ اللَّهُ عَنْه ، عَنِ النَّبِيِّ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ ، قَالَ : الْإِيمَانُ بِضْعٌ وَسِتُّونَ شُعْبَةً ، وَالْحَيَاءُ شُعْبَةٌ مِنَ الْإِيمَانِ .
और अल्लाह पाक के उस फ़रमान की तशरीह कि नेकी यही नहीं है कि तुम (नमाज़ में) अपना मुँह पूरब या पच्छिम की तरफ़ कर लो बल्कि असली नेकी तो उस इन्सान की है जो अल्लाह (की ज़ात और सिफ़ात) पर यक़ीन रखे और क़ियामत को हक़ माने और फ़रिश्तों के वुजूद पर ईमान लाए और आसमान से नाज़िल होने वाली किताब को सच्चा तस्लीम करे। और जिस क़द्र नबी / रसूल दुनिया में तशरीफ़ लाए उन सब को सच्चा तस्लीम करे। और वो शख़्स माल देता हो अल्लाह की मुहब्बत में अपने (ज़रूरतमन्द) रिश्तेदारों को और (नादार) यतीमों को और दूसरे मोहताज लोगों को और (तंग हाल) मुसाफ़िरों को और (लाचारी) में सवाल करने वालों को और (क़ैदी और ग़ुलामों की) गर्दन छुड़ाने में और नमाज़ की पाबन्दी करता हो और ज़कात अदा करता हो और अपने वादों को पूरा करने वाले जब वो किसी बात की बाबत वादा करें। और वो लोग जो सब्र और शुक्र करने वाले हैं तंग-दस्ती में और बीमारी में और (लड़ाई) जिहाद में यही लोग वो हैं जिनको सच्चा मोमिन कहा जा सकता है और यही लोग हक़ीक़त में परहेज़गार हैं। यक़ीनन ईमान वाले कामयाब हो गए। जो अपनी नमाज़ों में डर ख़ुज़ूअ (दिल का झुकाव) रखने वाले हैं और जो फ़ुज़ूल और बेकार बातों से दूर रहने वाले हैं और वो जो ज़कात से पाकीज़गी हासिल करने वाले हैं। और जो अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करने वाले हैं सिवाए अपनी बीवियों और लौंडियों से क्योंकि उनके साथ सोहबत करने में उनपर कोई इलज़ाम नहीं। हाँ जो इनके अलावा (ज़िना या लवातत या मुश्त-ज़नी वग़ैरा से) शहवत-रानी करें ऐसे लोग हद से निकलने वाले हैं। और जो लोग अपनी अमानत और अहद का ख़याल रखने वाले हैं और जो अपनी नमाज़ों की पूरे तौर पर हिफ़ाज़त करते हैं यही लोग जन्नतुल-फ़िरदौस की विरासत हासिल कर लेंगे फिर वो उसमें हमेशा रहेंगे।
आप (सल्ल०) ने फ़रमाया कि ईमान की साठ से कुछ ऊपर शाख़ें हैं। और हया (शर्म) भी ईमान की एक शाख़ है।
Sunnati Libas: सुनाती लिबाज
इस्लाम हर दौर और हर ज़माने के लिए आया है, इस लिए इस्लाम ने लिबास के हवाले से कुछ हिदायत दी हैं, लेकिन कोई स्पेसिफिक लिबास मुक़र्रर नहीं किया। इस्लाम का मक़सद ये है कि लिबास इंसानी हया और शर्म का ज़रिया हो, ना कि एक मज़हबी या मक़ामी तहज़ीब का फ़र्ज़।
इस्लाम के मुताबिक लिबास के लिए चंद ज़रूरी शर्तें हैं:
- सतर को ढकना: लिबास ऐसा हो जो मर्द और औरत के सतर को पूरी तरह ढके। औरत के लिए लिबास पूरे जिस्म को ढकना ज़रूरी है।
- चुस्त ना हो: लिबास इतना चुस्त ना हो कि जिस्म के अज़ा ज़ाहिर हों या उनकी शक्ल नुमायां हो।
- मर्दों के लिए टखने के ऊपर: मर्दों का लिबास टखने के ऊपर होना चाहिए।
- दूसरी क़ौम का तास्सुर ना दे: ऐसा लिबास ना पहनें जो किसी और क़ौम या मज़हब का तास्सुर दे।
इन शरायतों के अंदर रहकर मुसलमान जो चाहे पहन सकता है। चाहे वो अरब का कुर्ता हो या किसी ठंडे इलाक़े का मौसम के मुताबिक़ लिबास। इस्लाम का मक़सद है हया और शराफ़त का तक़ाज़ा पूरा करना, ना कि कोई ख़ास लिबास मुक़र्रर करना।
Conclusion: आखिरी बात
इस्लाम का मकसद हमेशा हया, शर्म और इज़्ज़त का इज़हार करना है। लिबास सिर्फ जिस्म को ढकने का ज़रिया नहीं, बल्कि एक मोहसिन और शरीफ़ शख्सियत का तसव्वुर देता है। दीनी अहकाम के मुताबिक, लिबास ऐसा होना चाहिए जो सतर ढके, न ज़्यादा चुस्त हो, और दूसरी क़ौमों की नकल न करे। आज के दौर में लिबास को सिर्फ फैशन बनाकर इसका असल मकसद खत्म कर दिया गया है, जो इस्लामी तालीमात के खिलाफ है। हमें चाहिए कि अपना लिबास जितना हो सके सिंपल और हया पर मबनी रखें, ताके लोग हमारी शख्सियत को इज़्ज़त से देखें और इस्लाम का असल मकसद ज़ाहिर हो।
I attained the title of Hafiz-e-Quran from Jamia Rahmania Bashir Hat, West Bengal. Building on this, in 2024, I earned the degree of Moulana from Jamia Islamia Arabia, Amruha, U.P. These qualifications signify my expertise in Quranic memorization and Islamic studies, reflecting years of dedication and learning.